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Thursday, August 20, 2020

समाजवाद की शव परीक्षा

 


स्वाधीनता संग्राम के एक बहुचर्चित सेनानी व क्रांतिकारी हुए हैं, यशपाल, जो एक स्वभाविक साहित्यकार और बुद्धिजीवी भी बेजोड़ थे। उनके लिखे दसियों उपन्यास, कहानियाँ, और लेख एक बहुमूल्य ज्ञान स्रोत एवं प्रेरणात्मक ख़ज़ाना है। उनकी एक किताब का शीर्षक है, गांधीवाद की शव परीक्षा। चूँकि, यशपाल एक कट्टर मार्क्सवादी थे, उन्होंने गांधीवाद के शव परीक्षण का प्रश्न उठाया, क्योंकि उनकी दृष्टि से वह मर तो पहले ही चुका था। मुझे इस शीर्षक ने, पुस्तक से ज्यादा प्रभावित किया। सोचा आज क्यों ना समाजवाद की शव परीक्षा की जाय। 

कार्ल मार्क्स और एंजिल्स, अपनी तीक्ष्ण मेधा से यह समझ पाए कि धरती के साधनों पर किसी व्यक्ति विशेष का अधिकार नहीं, अपितु सबका है। या यूं कहें कि यह अधिकार राष्ट्र अथवा देश का है, तो इसमें झूंट की भला कहां गुंजाईश है। यह बात सटीक तीर की भांति हर एक बुद्धिजीवी के मस्तिष्क में प्रविष्ट हो गई। और दूसरी बात, कि हर वो व्यक्ति जो इस धरती पर पैदा हुआ है, उसके सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक अधिकारों में किसी प्रकार का भेदभाव या ऊंचनीच ना हो। इसमें भी भला क्या गलत हो सकता है? यह विचार भी बुद्धिजीवियों और ग्रसित जनता के जहन में ऐसे घर कर गया, मानो भूके के पेट में रोटी। 

पूरे विश्व में समाजवाद की लहर उठी और बहुत देश इसके बहाव में बह भी गए। रूस, चीन, वियतनाम, क्यूबा, इत्यादि। भारत में भी इसका प्रभाव काफ़ी जोरों पर रहा, खास तौर पर ब्रिटिश हुकूमत के दौरान। 

भगत सिंह और उनकी हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी भी एक समाजवादी भारत कि कल्पना करते थे। कश्मीर के शेख अब्दुल्लाह वहां इसी प्रकार का आंदोलन भी चला रहे थे। 

भारत के पहले और अविस्मरणीय प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू भी समाजवाद से प्रेरित थे। बाद में उनकी पुत्री इंदिरा गांधी ने समाजवादी तंत्र को मजबूती देने का जीतोड़ प्रयत्न किया। 

लेकिन, समाजवाद अपनी अल्पायु में ही चल बसा। १९१७ में जन्मी इस राजनैतिक व्यवस्था का ९० का दशक आते आते इंतकाल हो गया। मात्र सत्तर वर्ष में समाजवाद, विश्व में मूलरूप से लुप्त हो गया। अब यदि कुछ अवशेष है भी तो वह तानाशाहियों की आड़ बने हुए हैं। 


जब, एक इतना न्यायपूर्ण और मानवीय राजनैतिक विचार पनप रहा था तो उसकी मौत का क्या कारण हो सकता है, यह एक सतत गूढ़ विश्लेषण का विषय है। समाजवाद की मृत्यु को एक आत्महत्या माना जाए अथवा हत्या? यह प्रश्न आज सभी बुद्धिजीवियों को उत्तेजित करता है और इसका उत्तर तर्क और वितर्क से परे, दूर कहीं नियति की परिधि में छुपा प्रतीत होता है। 

समाजवाद का जन्म ही, स्वाभाविक, या प्राकृतिक ना हो कर  एक टेस्ट ट्यूब बेबी के समान दर्शनशास्र की प्रयोगशाला द्वारा हुआ। विश्व भर की राजनैतिक और आर्थिक व्यवस्थाएं, समाजवाद के जन्म से पहले ही अपनी गहरी जड़ें फैला चुकीं थीं और सामंतवाद, पूंजीवाद या फासीवाद का बोल बाला था। ऐसे में समाजवाद का बच पाना मुश्किल था। आयरन कर्टेन के बावजूद पूंजीवादी ताकतों ने समाजवाद का किला डहा दिया। यदि इसे सच मानें तो यह एक हत्या का मामला हुआ।

रूस जिसे समाजवाद की प्रयोगशाला कहें तो संभवतः गलत नहीं होगा। यहां के शासकों ने मार्क्स के सिद्धांतो का परिपालन करने में आतंक का सहारा लिया और स्वयं लोभी, सत्तापरस्त व साम्राज्यवादी बन गए। ऐसा संभवतः इसलिए हुआ कि समाजवाद की स्थापना लिए निरंकुश, एवम पूर्ण सत्ता की अनिवार्यता है। इसका अर्थ यह हुआ कि समाजवाद की मृत्यु एक आत्महत्या का मामला है। 


जो भी हो, जब गीता में यह कहा गया है कि आत्मा अमर है, तो फिर समाजवाद की आत्मा अभी जिंदा है। शायद, अभी उस शरीर को बनने में समय है, जिसमें एक बार फिर समाजवाद जन्म ले सके। आज समाजवाद की आत्मा दर दर भटक रही है। कन्हैया जैसे युवा 

सरगर्मों के दिलों में झलकती है। 

 समाजवाद, मानें तो एक विचार है, एक दर्शन है, एक धर्म है, और इसे हमें अपने राजनैतिक और आर्थिक जीवन में उतारने की गहरी आवश्यकता है। 

यदि हम ऐसा कर सके तो विश्व की ज्यादातर समस्याएं स्वत: दूर हो जाएंगी।

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